Monday, November 5, 2007

कुण्डलियाँ

नारी सी लगती नहीं, यह कैसे पहने वस्त्र
वसन श्लीलता के प्रतीक या कामदेव के शस्त्र
कामदेव के शस्त्र, गया लज्जा का गहना
इन वस्त्रों में तुम जोकर सी लगती बहना
कह अभिषेक कविराय, जी छोडो स्वेच्छाचारी
गौरवशाली थीं पुनि गौरव धारो नारी

अभिषेक जैन

Tuesday, October 16, 2007

सुन्दर नारी

चंद्र सुशीतल धवल ज्योत्सना, इंदु की रमणीक कलाएं
इस मनमोहक वातावरण में, घूमती हैं चितचोर बलायें
ये सागर मोती सी उज्जवल, दिव्य सुमन की हैं मालाएं
नयन झुके हैं अधर रुके, कितनी कोमल होती बालाएँ

श्याम लोचनों का अवगुन्ठन डाले प्रतीत ये होती हैं (अवगुन्ठन = जाल)
अति आकर्षक अति मनमोहक, कितनी शीतल ये ज्वालाएं
नयन झुके हैं अधर रुके, कितनी कोमल होती बालाएँ

कविताओं का जन्म ह्रदय से, इन्हें निरख कर होता है
कवि कल्पना को पर देंती, रस श्रृंगार की है शालायें
नयन झुके हैं अधर रुके, कितनी कोमल होती बालाएँ

रुप है ज्यों मदमत्त वारुणी, धवल वर्ण है आभावान (वारुणी = शराब)
नयन बाण से धरा हिलाती, सबल है कितनी ये अबलायें
नयन झुके हैं अधर रुके, कितनी कोमल होती बालाएँ

लेकिन

सत्य शील और ज्ञान हो इनमें, होती जग में पूजा इनकी
रुप गुणों की स्वामिनियों से, 'अभिषेक' करे इतनी ही विनती
तीन गुणों की कमी में अपनी, अपूर्णता समझें महिलाएं
नारी सा गौरव धारण कर, सर्वांग रुपिणी वे कहलायें
नयन झुके हैं अधर रुके, कितनी कोमल होती बालाएँ

अभिषेक जैन
ज़ीयस न्युमरिक्स
१८ अक्तूबर २००७

Saturday, September 15, 2007

मेरा परिणय

एक बाला से मैं करूं प्रेम, एक बाला मुझसे करती प्रेम
जिस बाला से मैं करूं प्रेम
तव नयन युगल हैं सदय सजल, ज्यों ज्ञान ज्योति निर्मल
तव ह्रदय कमल में प्रेम विपुल, चारित्र प्रीति निश्चल
तव ध्येय विमल है देह अमल, प्रभु निरख सकूं प्रतिपल
एक बाला से मैं करूं प्रेम, एक बाला मुझसे करती प्रेम

जो बाला मुझसे करती प्रेम
तव नयन युगल हैं अदय निबल मॆं क्रूर करें घायल
तव चरित भ्रष्ट है अहित स्पष्ट, मृग मरीचिका सा मरुथल
तव ध्येय समल मम पतन अटल, जो प्रीत करूं एक पल
एक बाला से मैं करूं प्रेम, एक बाला मुझसे करती प्रेम

मुक्ति बाला से मैं करूं प्रेम, किसविध कह जाऊं अपना क्षेम
मम आत्मा सुदृढ़ ना, बुद्धि प्रखर ना
ब्रह्म का ना संबल, वैराग्य हुआ ना प्रबल
एक बाला से मैं करूं प्रेम, एक बाला मुझसे करती प्रेम
भुक्ति बाला मुझसे करती प्रेम, वह राख करती निज आत्म हेम
तव मोह पाश मैं हो निश्वास
खो रहा है आतम बल, भय लगा हुआ प्रतिपल
एक बाला से .......

मुक्ति बाला आलिंगन कर मैं, सौख्य पाऊं अविचल
राग जाल मॆं बंधा ना समझूँ, इस भुक्ति का छल
चाहूँ मुक्ति का स्वामी बनूँ पर, भुक्ति बांधे मेरे चरण द्वय
कहे मुक्ति के मोह सहित हो, संभव नहीं हमारा परिणय

कर जोड़ करूं मैं प्रभु प्रार्थना, तव भक्ति मुझे दे ऐसी साधना
सिद्ध बनूँ मैं बुद्ध बनूँ, कर्म कलंक से शुद्ध बनूँ
जिस बाला से मैं करूं प्रेम, कह पाऊं सबल हो अपना क्षेम
तप कर कुंदन हो आया सुंदरी, जिनवर नन्दन हो आया सुंदरी
कष्ट हुआ अवश्य विकराल, भुक्ति को ह्रदय से दिया निकाल
युग तृषित पुरुष को ये अवसर दो, भव भ्रमित मनुज को इच्छित वर दो
जगजाल व्यथा का शीघ्र हरण हो, मेरा तुमसे अब पाणिग्रहण हो
पुनर्जन्म का छूटे दल दल, प्रभु यही प्रार्थना करूं मैं पल पल
जिस बाला से मैं करूं प्रेम
वह बाला मुझसे भी करे प्रेम


अभिषेक जैन
ज़ीयस न्युमरिक्स
१८ अक्तूबर २००७